बादल के एक कोने में, पलकों को अपनी मूँद,
अपनी बारी का इंतज़ार करती , थी मैं एक छोटी सी बूँद.
जा मिलना था मुझे उस गिरती बारिश के साथ,
पहुँचना था धरा, करनी थी सपनों से बात.
घूमना था ख़ानाबदोश सा मुझे, बनके नदिया का पानी,
या फिर सागर के तल जा, सुलझानी थी कोई कहानी.
या बनना था जीवन मुझे, किसी खेत में उगती अलसी का,
या बुझानी थी प्यास किसी मुसाफ़िर की, बन शीत जल एक कलसी का.
या बनके कूची का कोई रंग, देनी थी किसी तस्वीर को आवाज़,
या समा के बीच इक जलतरंग, देनी थी किसी बंदिश को साज़.
बादल की एक गर्जन ने, सपनों से मुझे जगाया,
शुरू किया मैंने सफ़र, और खुद को उड़ता पाया.
हवा के झोंकों से मेरी, कुछ बदलती जाती थी डगर,
डर सा आया कुछ मेरे ज़ेहन में, कहाँ ले जा रहा था ये सफ़र.
क्या हुआ कहीं अगर मुझे, मिल न पाएं सागर नदी,
बन न जाऊँ छोटी सी पोखर, मैं किसी कूचे गली.
क्या हुआ कहीं अगर मुझे, मिल न सके खेत और खलिहान,
मिल न जाऊँ मिटटी में मैं, कहीं किसी सेहरा वीरान.
ज़हमत के इस अंधियारे में, कुछ उजाला यूँ मुस्कुराया,
जब सबा की सुहबत में, दूर मुझे सूरज नज़र आया.
देखा झाँक के मुझमें उसने, नेक था मेरा ईमान,
मुझमे सिमटे सपनों से फिर, उसने रंग दिया ये आसमान.
और दिया ये आसरा, कि हों इरादे नेक अगर,
मुश्किलें हल हों जाती हैं, और खुद ही बन जाती है इक डगर.
बनना भी हो पोखर एक छोटी, होना है वो सबसे आसान,
खेलेंगे जब बच्चे उसमें, बस बन जाना है उनकी मुस्कान.
ना दे भी सकूं अगर मैं, किसी बंदिश को कभी साज़,
कोयल के गाने का साथ दे देगी, मेरी रिमझिम की आवाज़.
और मिलना भी हो अगर मिटटी मैं मुझे, ना उसमें समाये रह जाना है,
बनके खुशबू इक सौंधी सी, इस फिज़ा को मुझे महकाना है.
तेज़ है हवा अब भी मगर, नहीं रहा ज़ेहन में डर,
मिल गयी थी दिशा मुझे, और मिल गयी थी इक डगर.